Thursday, August 27, 2020

प्रेमचंद को हिंदी का सबसे बड़ा साहित्यकार माना जाता है. भारत की आज़ादी के पहले देश के यथार्थ का जैसा चित्रण प्रेमचंद के साहित्य में मिलता है वैसा किसी अन्य लेखक के साहित्य में नहीं मिलता.

 प्रेमचंद को हिंदी का सबसे बड़ा साहित्यकार माना जाता है. भारत की आज़ादी के पहले देश के यथार्थ का जैसा चित्रण प्रेमचंद के साहित्य में मिलता है वैसा किसी अन्य लेखक के साहित्य में नहीं मिलता.

औपनिवेशिक शासन के प्रभाव स्वरूप भारत के ग्रामीण जीवन में जो बदलाव आए उसका प्रेमचंद ने आम लोगों की भाषा में गोदान, गबन, निर्मला, कर्मभूमि, सेवासदन, कायाकल्प, प्रतिज्ञा जैसे उपन्यासों और कफ़न, पूस की रात, नमक का दारोगा, बड़े घर की बेटी, घासवाली, ईदगाह जैसी कई कहानियों में यथार्थ चित्रण किया.

तत्कालीन ग्रामीण समाज की ग़रीबी, जहालत, शोषण, उत्पीड़न, वंचना, भेदभाव, धार्मिक विसंगति, महिलाओं की बदहाली जैसी सच्चाइयां और अंग्रेज़ी शासन के शोषण का असली चेहरा प्रेमचंद की लेखनी का संस्पर्श पाकर जीवंत हो उठे.

कालजयी साहित्य

प्रेमचंद ने औपनिवेशिक काल के जीवन पर कई उपन्यास और कहानियां लिखीं

प्रेमचंद के समय में और उसके बाद जैनेंद्र, अज्ञेय, फणीश्वरनाथ रेणु, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, यशपाल जैसे हिंदी के कई बड़े लेखक हुए लेकिन लोकप्रियता और प्रभाव दोनों ही मानदंडों पर प्रेमचंद के क़द के क़रीब कोई नहीं पहुंच सका.

लेकिन इसकी वजह क्या है. हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय कहते हैं, “प्रेमचंद जितने बड़े लेखक थे, उतने बड़े लेखक हमेशा पैदा नहीं होते. ये लगभग वैसा ही है कि अंग्रेज़ी साहित्य में दूसरा शेक्सपियर आज तक पैदा नहीं हुआ. प्रेमचंद ने जिन समस्याओं पर कहानियों और उपन्यासों का लेखन किया था वो सभी समस्याएं आज भी मौजूद हैं और उनमें से कुछ तो प्रेमचंद के ज़माने से अधिक भीषण रूप में आज मौजूद हैं.”

नई समस्याएं

"प्रेमचंद जितने बड़े लेखक थे, उतने बड़े लेखक हमेशा पैदा नहीं होते. ये लगभग वैसा ही है कि अंग्रेज़ी साहित्य में दूसरा शेक्सपियर आज तक पैदा नहीं हुआ."

मैनेजर पांडेय, हिंदी आलोचक

लेकिन इसकी वजह क्या है कि समस्याएं तो प्रेमचंद के दौर से ज्यादा जटिल और व्यापक रूप में मौजूद हैं लेकिन लेखक उन्हें शब्दों में उतार नहीं पा रहे.

हिंदी के प्रख्यात आलोचक और साहित्यकार पुरुषोत्तम अग्रवाल इसकी वजह बताते हुए कहते हैं, “जिस तरह का कथालेखन इस समय हिंदी में हो रहा है, ऐसा लगता है जैसे किसी विचार को प्रसारित करने के लिए किया जा रहा है.”

समाज से कटा लेखक

ग़ुलाम भारतीय किसान जीवन पर आधारित 'गोदान' प्रेमचंद का सबसे चर्चित उपन्यास है

वो कहते हैं कि लेखक का जैसा गहरा रिश्ता समाज से होना चाहिए वैसा आज नहीं है. लेखक को जिस तरह अपनी परंपरा, अपने आज और अपने भावी कल के बीच का पुल होना चाहिए वैसा पुल वो नहीं बन पा रहा.

इसे और स्पष्ट करते हुए प्रोफेसर अग्रवाल जुजे सारामागो के उपन्यास ‘लिस्बन की घेरेबंदी का इतिहास’ की पंक्तियां याद करते हुए कहते हैं, “वहां तीन प्रेतात्माएं थीं. एक उसकी जो हुआ. एक उसकी जो हो सकता था लेकिन नहीं हुआ और एक उसकी जो होगा. ये तीन प्रेतात्माएं थीं लेकिन आपस में बात नहीं कर रही थीं. जब ये तीनों प्रेतात्माएं आपस में बात करती हैं तब महान साहित्य उत्पन्न होता है.”

आज प्रेमचंद जैसी प्रतिभा वाला लेखक, समाज के बड़े हिस्से को छूने वाला लेखक क्यों नहीं बन पा रहा, इसका जो संकेत प्रोफ़ेसर अग्रवाल ने दिया उसे आज के लोकप्रिय साहित्यकार उदय प्रकाश समझाते हुए कहते हैं, “आज का लेखक आत्मचेतस है, अपनी सफलता के बारे में तो सोचता है लेकिन उसके पास प्रेमचंद जैसी विश्वदृष्टि का अभाव है."

पाठकों की चिंता

प्रेमचंद की रचनाओं की दुनिया की कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है.

आज़ादी के बाद के हिंदी साहित्य में श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘रागदरबारी’, मन्नु भंडारी के उपन्यास ‘महाभोज’ और ‘आपका बंटी’ और निर्मल वर्मा के उपन्यास ‘वे दिन’ की खूब चर्चा हुई. हाल के वर्षों में कमलेश्वर के ‘कितने पाकिस्तान’, निर्मल वर्मा के ‘अंतिम अरण्य’, कृष्णा सोबती के ‘समय सरगम’ जैसी कृतियों को खूब सराहा गया

लेकिन सबसे ज़्यादा चर्चा रही विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ‘दीवार में खिड़की रहती थी’ और अलका सरावगी के उपन्यास ‘कलिकथा वाया बाइपास’ की. लेकिन ये रचनाएं भी लोक मानस में, हिंदी के वृहत पाठक समुदाय में प्रेमचंद जैसा व्यापक असर नहीं छोड़ सकीं. उन्हें सोचने पर मजबूर नहीं कर सकीं.

लोग आज के हिंदी साहित्य के बारे में क्या सोचते हैं. उनकी स्मृति में प्रेमचंद का स्थान दूसरा कोई लेखक क्यों नहीं बना पाता.

पुस्तक मेलों में आज भी सबसे ज़्यादा प्रेमचंद की किताबें बिकती हैं

ग़ैर हिंदी भाषियों के लिए हिंदी मतलब का आज भी प्रेमचंद ही क्यों है? इसका जवाब दिल्ली पुस्तक मेले में मिले एक सज्जन अशोक राय ने कुछ यूं दिया, “हिंदी में आज जो कुछ लिखा जा रहा है वो हमें कनेक्ट नहीं करता. हमारी ज़िदगी को नहीं छूता. आज लोग चेतन भगत को पढ़ रहे हैं. मूल अंग्रेज़ी में और हिंदी अनुवाद में भी. आज की ज़िंदगी के बारे में कोई चेतन भगत की तरह भी लिखे ना तो लोग पढ़ेंगे. रचना में मनोरंजन हो, कुछ ज्ञान हो, कुछ आज की सच्चाई हो. हिंदी में मुझे ऐसा कुछ दिख नहीं रहा है.”

आज लेखकों की भीड़ है. प्रकाशक कहते हैं कई लेखकों की रचनाओं के संस्करण पर संस्करण छापने पड़ रहे हैं. लेकिन पाठक का कोश सूना है. उसे आज भी तलाश है एक प्रेमचंद की, कम से कम प्रेमचंद जैसे की जो भूमंडलीकरण और बाज़ारीकरण के दौर में भारतीय जीवन में आए बदलाव और स्थाई सी हो चुकी समस्याओं के द्वंद्व और उससे उबरने की छटपटाहट को शब्दों में बयां कर सके.

'ईदगाह' कहानी एक ऐसी कहानी है, जिसे शायद सभी ने पढ़ा होगा.

 'ईदगाह' कहानी एक ऐसी कहानी है, जिसे शायद सभी ने पढ़ा होगा.

इस कहानी का पात्र है एक छोटा बच्चा, हामिद जो अन्य हम उम्र साथियों की तरह खेल खिलौनों और गुड्डे-गुड़ियों के लालच में नहीं पड़ता और अपनी दादी के लिए मेले से एक चिमटा खरीद कर लाता है.

मगर चिमटा ही क्यों ? वो इसलिए क्योंकि रोटियां सेकते वक़्त उसकी दादी के हाथ जल जाते थे.

इस छोटी सी कहानी में लेखक प्रेमचंद ने हामिद से बड़ी-बड़ी बातें कहलवा दीं. वो बातें जो ना सिर्फ पाठक के दिल को छू जातीं हैं, बल्कि पाठक उन्हें आत्मसात भी कर लेता है.

ये तो सिर्फ एक उदाहरण भर है, प्रेमचंद इंसान के मनोविज्ञान को समझने वाले रचनाकार थे.

सुनिए: प्रेमचंद पर विवेचना

यथार्थ का चित्रण

भारतीय गांवइमेज कॉपीरइटREUTERS

आज़ादी के पहले भारत की हक़ीक़त का जैसा चित्रण प्रेमचंद ने किया वैसा किसी अन्य लेखक के साहित्य में नहीं मिलता.

प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई सन् 1880 को बनारस से चार मील दूर लमही ग्राम में हुआ था.

पिता का नाम अजायब राय था और वो डाकखाने में मामूली नौकरी करते थे. प्रेमचंद के बचपन का नाम था धनपतराय.

धनपत राय जब सिर्फ 15 साल के थे तो उनके पिता अजायब राय ने उनका विवाह करा दिया.

विवाह के साल भर बाद ही पिता के देहान्त के बाद, अचानक पूरे घर का बोझ उन पर आ गया. एक साथ पाँच लोगों का खर्च उठाने की ज़िम्मेदारी आ गई.

ग़रीबी का कुचक्र

बचपन से ही प्रेमचंद को उर्दू आती थी. 13 साल की उम्र से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था.

शुरू में उन्होंने कुछ नाटक लिखे. फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना शुरू किया. इस तरह उनका साहित्यिक सफर शुरू हुआ जो मरते दम तक साथ-साथ रहा.

प्रेमचन्द जिस तरह का साहित्य लिख रहे थे, उसके पीछे की वजह उनकी पृष्ठभूमि और देश का औपनिवेशिक शासन था, जिसे वो खुद जी रहे थे. उनके दिन भी पैसे की तंगी में बीत रहे थे.

दूसरी शादी के बाद प्रेमचंद की परिस्थितियां कुछ बदलीं. इसी दौरान उनकी पाँच कहानियों का संग्रह 'सोज़े वतन छपा.'

इसमें उन्होंने देश प्रेम और देश की जनता के दर्द को लिखा. अंग्रेज शासकों को इसमें बगावत की बू आने लगी. इस समय प्रेमचन्द नवाब राय के नाम से लिखा करते थे.

लिहाजा नवाब राय की खोज शुरू हुई.

नवाब राय पकड़ लिए गए और उनकी आंखों के सामने 'सोज़े वतन' को अंग्रेजों ने जला दिया. साथ ही बिना आज्ञा के न लिखने का प्रतिबंध भी लगा दिया.

मिला प्रेमचंद का नाम

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इसके बाद धनपत राय नवाब राय नहीं बल्कि हमेशा के लिए प्रेमचंद बन गए और ये नाम सुझाया उनके नज़दीकी मुंशी दया नारायण निगम ने.

मुंशी दया नारायण निगम बीसवीं सदी के शुरू में कानपुर से प्रकाशित होने वाली उर्दू पत्रिका 'ज़माना' के संपादक थे.

उन्होंने ही प्रेमचंद की पहली कहानी 'दुनिया का सबसे अनमोल रतन' प्रकाशित की थी.

अपनी ज़िन्दगी के आखिरी पड़ाव में उन्होंने एक उपन्यास लिखना शुरू किया. ये था मंगलसूत्र...पर ये कभी पूरा न हो सका.

फ़िल्मी दुनिया के चक्कर में

धन और परिवार का पालन पोषण करने के लिए प्रेमचंद अपनी क़िस्मत आजमाने 1934 में माया नगरी मुंबई पहुंचे.

अजंता कंपनी में कहानी लेखक की नौकरी भी की, लेकिन साल भर का अनुबंध पूरा करने से पहले ही वापस घर लौट आए.

हालांकि प्रेमचंद की कहानियों, उनके उपन्यासों पर कई फ़िल्में बनीं, लेकिन जनता ने उनके साथ न्याय नहीं किया.

शतरंज के खिलाड़ीइमेज कॉपीरइटSATYAJEET RAY

प्रेमचंद के उपन्यास या कहानी पर बनी अगर किसी फ़िल्म ने सफलता का मुंह देखा तो वो थी 1977 में बनीं 'शतरंज के खिलाड़ी...' इसके निर्देशक थे सत्यजित रे.

इस फ़िल्म को तीन फ़िल्म फेयर अवार्ड मिले. इस फ़िल्म की कहानी अवध के नवाब वाजिद अली शाह के दो अमीरों के ईद गिर्द घूमती है.

भारतीय फ़िल्मों पर लिखने वाले साहित्यकार यतींद्र मिश्र बताते हैं कि प्रेमचंद की तीन कहानियों पर फ़िल्में बनीं जिनमें 'सद्गति' और 'शतरंज के खिलाड़ी' सत्यजीत रे ने हिंदी में बनाई और 'कफ़न' पर मृणाल सेन ने फ़िल्म बनाई.

इसके आलावा 'गोदान', 'गबन' और 'हीरा मोती' को याद किया जा सकता है.

फ़िल्मों की असफलता

पर जो प्रेमचंद हिंदी साहित्य की दुनिया में कहानी और कथाकार के रूप में बड़ा नाम बन चुके थे, उनकी लिखी कहानियों और उपान्यासों पर बनीं फ़िल्मों को जनता ने नकार दिया.

प्रेमचंद की रचनाओं में दलित हैं, किसान हैं और गरीबी और शोषण दी दास्तान है, इसलिए लोगों ने प्रेमचंद की रचनाओं में वामपंथ से झुकाव को खोजा.

प्रेमचंद की जीवनी 'कलम का सिपाही' लिखने वाले उनके पुत्र अमृत राय बताते हैं, “प्रेमचंद ने 1919 में दया नारायण निगम को लिखा कि वो वोल्शेविक उसूलों को मानने लगे हैं, इसका मतलब सिर्फ़ ये है कि जो शोषण के खिलाफ़ इंकलाब इस धरती पर आया तो वो इसका अभिनंदन कर रहे हैं. लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि वो वामपंथी हो गए हैं.”

बहुत ही कम लोगों को ये पता होगा कि प्रेमचंद के बेटे अमृत राय और प्रसिद्ध कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की बेटी सुधा चौहान की शादी हुई थी.

प्रेमचंद के पौत्र अलोक राय बताते हैं कि त्रिपुरा कांग्रेस में उनके पिता हिस्सा लेने गए थे और वहीं पर उनकी उनकी मुलाक़ात उनकी मां से हुई जो कि कांग्रेस कार्यकर्ता के रूप में हिस्सा ले रहीं थीं.

इसके बाद उनकी मुलाक़ातों का सिलसिला बढ़ा, हांलाकि जाति को लेकर परिवारों की ओर से विरोध के सुर उठे लेकिन अंतत: उनकी शादी हो गई.

सामाजिक सरोकार

भारत के ग्रामीण जीवन को प्रेमचंद ने आम लोगों की भाषा में बयां किया और 'गोदान', 'गबन', 'निर्मला', 'कर्मभूमि', 'सेवासदन', 'कायाकल्प', 'प्रतिज्ञा' जैसे उपन्यासों और 'कफ़न', 'पूस की रात', 'नमक का दारोगा', 'बड़े घर की बेटी', 'घासवाली' जैसी कई कहानियों में लिख डाला.

लेकिन उस समय की जो समस्याओं थी, वो तो आज भी वैसे ही है, तो फिर प्रेमचंद के बाद उस तरह सामाजिक सरोकारों वाला लेखक क्यों नहीं मिलता?

मैनेजर पांडे
Image captionमैनेजर पांडे (फ़ाइल फ़ोटो)

जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में पूर्व प्रोफेसर मैनेजर पांडे कहते हैं, “आज का साहित्य शहरी मध्य वर्ग का साहित्य है जिसमें उनकी ही जीवन शैली और उनकी ही समस्याओं की बातें हैं. हाल के वर्षों में ये भी देखा गया है कि जिसने किसान जीवन पर लिखा उसे पिछड़ा हुआ लेखक मान लिया गया. आज के ज़माने में ना तो गाँव की बात करने वाले लेखक हैं और ना ही उन जैसा कोई विचारक.”

छाया तले दबा परिवार

पर सवाल ये है कि एक ऐसे परिवार के लिए जिसे विरासत में प्रेमचंद जैसी शख़्सियत मिली हो, उसके लिए जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरना कितना कठिन काम है.

प्रेमचंद के पोते आलोक राय कहते हैं कि उनके पिता प्रेमचंद के बारे में बार बार एक बात दोहराते थे कि ये आदमी कहीं छोड़ता नहीं है. प्रेमचंद के सामने उनके बेटों की कोई अपनी पहचान नहीं बन सकती क्योंकि उनकी छाया बहुत बड़ी है.

और ये बात सच भी है कि हिंदी साहित्य में प्रेमचंद के बाद उन जैसा लेखक कोई नहीं हुआ.